RaGa रास नहीं आए, NaMo भाए रीता को
तकरीबन 24 साल कांग्रेस में रहीं रीता बहुगुणा जोशी ने 20 अक्टूबर शुक्रवार को अपनी इस पार्टी का हाथ झटक दिया। वे बीजेपी में शामिल हो गईं। जाते-जाते उन्होंने अपनी भड़ास भी निकाली। कांग्रेस को बेहद बदहाल तो बताया ही, राहुल के बारे में वैसा कह दिया, जैसा कि उनके विरोधी कहते रहे हैं। जोशी ने कहा कि राहुल को कोई सीरियसली नहीं लेता। उनसे कई और नेता नाराज हैं। कांग्रेस को यूपी में रिवाइव करने के लिए स्ट्रैटजिस्ट प्रशांत किशोर की मदद लेने के फैसले को उन्होंने पार्टी को ठेके पर देने जैसा करार दिया। हालांकि वे अपना दर्द भी बयां कर गईं। कहा-27 साल के राजनीतिक करियर में मैंने 24 साल कांग्रेस को दिए। पार्टी को छोड़ने का फैसला बड़ा मुश्किल लग रहा है। जाहिर है, जिस संगठन में लंबा वक्त गुजरा हो, उसे तमाम यादें और भावनात्मक रिश्ते तो जुड़े ही होंगे। वैसे, अनदेखी होना एक ऐसा दंश है, जिसे झेलना बड़ा ही दुरूह होता है। जिस पार्टी संगठन के काम के लिए अपना घर फुंकवा दिया हो, जेल तक जाना पड़ा हो (2009 में मायावती के खिलाफ टिप्पणी के बाद कथित तौर पर बसपाइयों ने घर में आग लगा दी थी), उस संगठन में इतना साइडलाइन किया जाना नागवार गुजरना लाजिमी है। उनके रहते सीएम फेस शीला दीक्षित को बनाया गया, चुनावी कामकाज प्रशांत किशोर की मैनेजरी में चल रहा है। प्रदेश अध्यक्ष राज बब्बर हो गए हैं। क्या मतलब है?
कांग्रेस भले ही यह कहकर संतोष कर रही हो कि रीता के पास एक सीट निकालने का माद्दा नहीं था, लेकिन उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि साल 2012 में जब अखिलेश की लहर थी तब लखनऊ कैंट सीट रीता ने निकाली थी। यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री और दिवंगत हेमवती नंदन बहुगुणा जी की बेटी रीता का सियासी कद कम नहीं है। ब्राहमण और यूपी में बसे चुके पहाड़ी वोटरों पर उनकी खासी पकड़ है। बीजेपी को रीता में यही पोटेंशियल नजर आया। शायद यही वजह है कि रीता के जाने से चिढ़े राजबब्बर ने बयान दिया कि गद्दारों की फौज खड़ी करने से बीजेपी को यूपी में कुछ मिलने वाला नहीं है।
माहौल तो बनता ही है : एक राजनीतिक विश्लेषक सीनियर जर्नलिस्ट ने बड़ी व्यावहारिक सी बात कही। उनका कहना था कि चलो मान लेते हैं कि रीता कांग्रेस के लिए फायदेमंद नहीं थीं, लेकिन किसी बड़े नेता के पार्टी छोड़ने से माहौल पर तो असर पड़ता ही है। मसलन, चौराहों चौपालों पर लोग यही कह रहे होंगे कि लो, बड़े बड़े नेता तो पार्टी छोड़ रहे हैं।
कांग्रेस भले ही यह कहकर संतोष कर रही हो कि रीता के पास एक सीट निकालने का माद्दा नहीं था, लेकिन उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि साल 2012 में जब अखिलेश की लहर थी तब लखनऊ कैंट सीट रीता ने निकाली थी। यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री और दिवंगत हेमवती नंदन बहुगुणा जी की बेटी रीता का सियासी कद कम नहीं है। ब्राहमण और यूपी में बसे चुके पहाड़ी वोटरों पर उनकी खासी पकड़ है। बीजेपी को रीता में यही पोटेंशियल नजर आया। शायद यही वजह है कि रीता के जाने से चिढ़े राजबब्बर ने बयान दिया कि गद्दारों की फौज खड़ी करने से बीजेपी को यूपी में कुछ मिलने वाला नहीं है।
माहौल तो बनता ही है : एक राजनीतिक विश्लेषक सीनियर जर्नलिस्ट ने बड़ी व्यावहारिक सी बात कही। उनका कहना था कि चलो मान लेते हैं कि रीता कांग्रेस के लिए फायदेमंद नहीं थीं, लेकिन किसी बड़े नेता के पार्टी छोड़ने से माहौल पर तो असर पड़ता ही है। मसलन, चौराहों चौपालों पर लोग यही कह रहे होंगे कि लो, बड़े बड़े नेता तो पार्टी छोड़ रहे हैं।


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