सोमवार, 24 अक्टूबर 2016

आखिर क्यों नहीं छोड़ सकते नेताजी इन नेताजियों को...

सोमवार को नेताजी ने अखिलेश से दो टूक कहा-कि वह मुख्तार अंसारी, अमर सिंह और शिवपाल को नहीं छोड़ सकते। उन्होंने कौमी एकता दल का विलय न होने देने के लिए अखिलेश को डांटते हुए कहा-अंसारी परिवार बेहद सम्मानित है-आइए देखते हैं नेताजी की पसंद के तीनों नेताओं का प्रोफाइल-

मुख्तार अंसारी- मुलायम ने अंसारी परिवार को यूं ही सम्मानित नहीं कहा। मुख्तार की इमेज चाहे जैसी रही हो, पर राजनीति उनको विरासत में मिली.उनके दादा मुख्तार अहमद अंसारी अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रहे। जबकि उनके पिता एक कम्युनिस्ट नेता थे। 1988 में पहली बार हत्या के एक मामले में उनका नाम आया था। बाद में 90 का दशक अंसारी के लिए बड़ा अहम था। छात्र राजनीति के बाद जमीनी कारोबार और ठेकों की वजह से वह अपराध की दुनिया में कदम रख चुके थे। पूर्वांचल के मऊ, गाजीपुर, वाराणसी और जौनपुर में उनके नाम का सिक्का चलने लगा था। पूर्वांचल के बाहुबली बृजेश सिंह गैंग से टकराव, बीजेपी नेता कृष्णानंद राय की हत्या में लिप्तता और तमाम आपराधिक मामलों से होते हुए मुख्तार ने सियासत में धाक जमाई।
2007 में मुख्तार अंसारी और उनके भाई अफजल बीएसपी में शामिल हुए।
मायावती ने रॉबिनहुड के रूप में उनको पेश किया, गरीबों का मसीहा भी कहा था
 मुख्तार ने जेल में रहते हुए बीएसपी के टिकट पर वाराणसी से 2009 का लोकसभा चुनाव लड़ा
मगर वह भाजपा के मुरली मनोहर जोशी से 17,211 मतों के अंतर से हार गए
 उन्हें जोशी के 30.52% मतों की तुलना में 27.94% वोट हासिल हुए थे.
एक मर्डर केस में दोनों भाइयों को 2010 में बीएसपी से बाहर कर दिया गया.
बसपा से निष्कासित कर दिए जाने के बाद दोनों भाईयों को अन्य राजनीतिक दलों ने अस्वीकार कर दिया. तब तीनों अंसारी भाइयों मुख्तार, अफजल और सिब्गतुल्लाह ने 2010 में खुद की राजनीतिक पार्टी कौमी एकता दल (QED) का गठन किया. इससे पहले मुख्तार ने हिन्दू-मुस्लिम एकता पार्टी नामक एक संगठन शुरू किया था. जिसका विलय QED में कर दिया गया था. मार्च 2014 में अंसारी ने घोसी के साथ-साथ और वाराणसी से नरेंद्र मोदी के खिलाफ लोकसभा चुनाव लड़ने की घोषणा की थी. हालांकि चुनाव के पहले उन्होंने अपनी उम्मीदवारी वापस लेते हुए कहा था कि उन्होंने धर्मनिरपेक्ष वोट का विभाजन रोकने के लिए ऐसा किया है।


अमर सिंह


मुलायम सिंह ने बेटे अखिलेश को डांटते हुए कहा कि मैं अमर सिंह को नहीं छोड़ सकता। 
अमर सिंह औपचारिक तौर पर 1996 में सपा में शामिल हुए। मुलायम की वजह से उनको राज्यसभा में एंट्री मिल गई। अमर सिंह की मुलायम से करीब 1996 में तीसरे मोर्च की सरकार के दौरान मुलायम सिंह की उम्मीदें परवान चढ़ने लगीं और उन्हें पीएम पद की कुर्सी पास नजर आने लगी। इस दौरान अमर सिंह ने समाजवादी पार्टी के लिए फंड जुटाने का काम किया। वह एसपी और उद्योगपतियों के बीच पुल के तौर पर काम कर रहे थे।तीसरे मोर्चे की सरकार में मुलायम सिंह यादव जब रक्षा मंत्री बन गए तो अमर पार्टी में दूसरे नंबर की हैसियत में आ गए। उनके एक फोन कॉल पर तमाम काम हो जाया करते थे।
अमर सिंह और मुलायम की दोस्ती 2003 में चरम पर पहुंच गई, जब अमर सिंह ने बीएसपी में टूट पैदा कर दी और एसपी ने सरकार बना ली। इस बार अमर सिंह ने अपनी जाति का इस्तेमाल करते हुए मुलायम के पक्ष में विधायकों को लाने का काम किया।
बाद में मुलायम सिंह यादव ने यूपी डिवेलपमेंट काउंसिल का गठन किया और अमर सिंह को उसका चेयरमैन बनाया। इस काउंसिल में कारोबारी अनिल अंबानी, अदि और परमेश्वर गोदरेज, कुमार मंगलम बिड़ला, एलके खैतान और सुब्रत रॉय सहारा जैसी दिग्गज हस्तियां सदस्य थीं।

वहीं, अभिनेता अमिताभ बच्चन यूपी के ब्रैंड अंबैसडर बने। यही नहीं अमर सिंह ने पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन का लखनऊ दौरा भी सुनिश्चित कराने का काम किया। 2008 में अमर और मुलायम सिंह यादव ने यूपीए सरकार को बचाने के तमाम प्रयास किए, यहां तक कि अमर पर बीजेपी के तीन सांसदों को वोट के बदले नोट का ऑफर देने का आरोप भी लगा। लेकिन, एसपी में अमर सिंह के लगातार बढ़ते कद ने दूसरे बड़े चेहरों के लिए जरूर मुश्किल खड़ी कर दी। (इनपुट एनबीटी से साभार)
और शिवपाल के लिए तो मुलायम ने एक वाक्य में सारी बात कह दी, कि शिवपाल खुद जमीन पर बैठे और मुझे कुर्सी पर बिठाया। सपा का संगठन खड़ा करने में उनकी भूमिका को मुलायम सिंह भुला नहीं सकते।

परिवारवादी समाजवादी पार्टी का विवाद

चुनावों को लोकतंत्र का उत्सव यूं ही नहीं कहा जाता है। अब जहां उत्सव होते हैं, वहां गहमागहमी भी होती है। मौजूदा समय में सबसे ज्यादा गहमागहमी समाजवादी परिवार में मची है। यदुवंशियों का यह कुनबा यूपी में विधानसभा चुनाव के ऐन मौके पर बिखर रहा है। निकालना, बुलाना, बर्खास्तगी, ताजपोशी, मनाना, रूठना, टूटना, ऐंठना और जब तब रो पड़ना। क्या जनता को सरकार की विदाई की बेला में यही सब देखना था। अखिलेश सरकार के कार्यकाल में कुछ ही महीने बचे हैं। यूपी के वोटरों ने बड़े हहक के साथ अखिलेश के हक में वोट उड़ेल दिया था। अखिलेश यादव ने कम से कम अपने आचरण में तो वोटरों की उम्मीद की लौ को जलाए रखा। अब अखिलेश की कोशिश थी कि वो पांच साल का अपना रिपोर्ट कार्ड दिखाकर जनता से फिर अगले पांच साल मांगें, लेकिन पारिवारिक खुन्नस और स्वार्थों के टकराव ने उनके किए कराए पर पानी फेर दिया।

गुरुवार, 20 अक्टूबर 2016

RaGa रास नहीं आए, NaMo भाए रीता को

तकरीबन 24 साल कांग्रेस में रहीं रीता बहुगुणा जोशी ने 20 अक्टूबर शुक्रवार को अपनी इस पार्टी का हाथ झटक दिया। वे बीजेपी में शामिल हो गईं। जाते-जाते उन्होंने अपनी भड़ास भी निकाली। कांग्रेस को बेहद बदहाल तो बताया ही, राहुल के बारे में वैसा कह दिया, जैसा कि उनके विरोधी कहते रहे हैं। जोशी ने कहा कि राहुल को कोई सीरियसली नहीं लेता। उनसे कई और नेता नाराज हैं। कांग्रेस को यूपी में रिवाइव करने के लिए स्ट्रैटजिस्ट प्रशांत किशोर की मदद लेने के फैसले को उन्होंने पार्टी को ठेके पर देने जैसा करार दिया। हालांकि वे अपना दर्द भी बयां कर गईं। कहा-27 साल के राजनीतिक करियर में मैंने 24 साल कांग्रेस को दिए। पार्टी को छोड़ने का फैसला बड़ा मुश्किल लग रहा है। जाहिर है, जिस संगठन में लंबा वक्त गुजरा हो, उसे तमाम यादें और भावनात्मक रिश्ते तो जुड़े ही होंगे। वैसे, अनदेखी होना एक ऐसा दंश है, जिसे झेलना बड़ा ही दुरूह होता है। जिस पार्टी संगठन के काम के लिए अपना घर फुंकवा दिया हो, जेल तक जाना पड़ा हो (2009 में मायावती के खिलाफ टिप्पणी के बाद कथित तौर पर बसपाइयों ने घर में आग लगा दी थी), उस संगठन में इतना साइडलाइन किया जाना नागवार गुजरना लाजिमी है। उनके रहते सीएम फेस शीला दीक्षित को बनाया गया, चुनावी कामकाज प्रशांत किशोर की मैनेजरी में चल रहा है। प्रदेश अध्यक्ष राज बब्बर हो गए हैं। क्या मतलब है?
कांग्रेस भले ही यह कहकर संतोष कर रही हो कि रीता के पास एक सीट निकालने का माद्दा नहीं था, लेकिन उसे यह नहीं भूलना चाहिए कि साल 2012 में जब अखिलेश की लहर थी तब लखनऊ कैंट सीट रीता ने निकाली थी। यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री और दिवंगत हेमवती नंदन बहुगुणा जी की बेटी रीता का सियासी कद कम नहीं है। ब्राहमण और यूपी में बसे चुके पहाड़ी वोटरों पर उनकी खासी पकड़ है। बीजेपी को रीता में यही पोटेंशियल नजर आया। शायद यही वजह है कि रीता के जाने से चिढ़े राजबब्बर ने बयान दिया कि गद्दारों की फौज खड़ी करने से बीजेपी को यूपी में कुछ मिलने वाला नहीं है।

माहौल तो बनता ही है : एक राजनीतिक विश्लेषक सीनियर जर्नलिस्ट ने बड़ी व्यावहारिक सी बात कही। उनका कहना था कि चलो मान लेते हैं कि रीता कांग्रेस के लिए फायदेमंद नहीं थीं, लेकिन किसी बड़े नेता के पार्टी छोड़ने से माहौल पर तो असर पड़ता ही है। मसलन, चौराहों चौपालों पर लोग यही कह रहे होंगे कि लो, बड़े बड़े नेता तो पार्टी छोड़ रहे हैं।